अक्सर लोगो को ये कहते हुए सुना जाता है कि मजहब और राजनिति को अलग अलग देखना चाहिये तब एक सवाल हमारे मस्तिष्क/ जेहन मे उठा,मक्का मे मोहम्मद मुस्तफा सल्लल्लाहो अलेह वआले वासल्लम अगर नमाज़ कायम रहते,कुरान पढ़ते रहते तो मक्का के काफिरो पर क्या फर्क पड़ता, मेरे ख्याल से कोई फर्क नही पड़ता, जब अरब के काफिरो को फर्क पड़ना आरंभ हुआ जब सूद हराम, जुआ हराम ,शराब हराम , लड़कियों को हक़ , बेटियों को हक़, बहनो को हक़,ज़ौजा का हक़, विधवा को पुन: विवाह का हक़, बेगुनाह का कत्ल हराम ,इन सबसे वहाँ का समाज तिलमिला उठा उसने एक ऐसी फिजा देखी जिसमे उसके बुत के साथ साथ निज़ाम ही बदला जा रहा था , हाँ इस निज़ाम बदलने मे जो विशेष बात थी वो था सबके साथ न्याय देना, ज़ुल्म के आगे न्याय तभी दिया जा सकता है जब न्याय देने वाले के पास कुव्वत हो ताकत हो, ज़ालिम भी पूरी दुनिया मे अन्याय के राज को कायम करने के लिए ज़ुल्म को तेज़ी देता रहता है,नज़ीर के लिए हज़रत मूसा का जिक्र/उल्लेख कुरान मुक़द्दस मे जिक्र किया गया है हज़रत मूसा को फिरौन के महल मे रहते उन्हे क्य तकलीफ होती कोई तकलीफ नही होती मगर ज़ुल्म को मिटाने का जो कार्य अंजाम दिया उसके कार...